शादी का बंधन एक ऐसा बंधन है जो हिन्दू धर्म में सात जन्मो का बंधन माना जाता है, इसके लिए कई के धार्मिक रीति रिवाज को पूर्ण करना होता है और पंडित के द्वारा लड़के और लड़की के अग्नि के समक्ष सात फेरे होते हैं और कई तरह के मंत्र पढ़े जाते हैं तथा वर वधु को मंगलसूत्र पहनाता है और सिंदूर लगाता है।
क्या है सेल्फरेस्पेक्ट मैरिज?
इसके विपरीत हिन्दू मैरिज एक्ट में एक ऐसी शादी को भी मान्यता प्राप्त है जिसमे न पंडित कि जरूरत होती है, न सिंदूर की, न मंगलसूत्र की और नहीं किसी तरह के रीति-रिवाज़ का पालन करना होता है। आइये जानते हैं कि इस तरह कि शादी का क्या अर्थ है और किस तरह से यह सम्पन्न होती है।
हम बचपन से ही ऐसी शादियाँ देखते हुए आये हैं जिनमे पंडित जी काफी लम्बे समय तक मंत्रो का जाप करते हैं और वर वधु को बहुत सी प्रक्रिया को पूरा करना होता है जिसमे फेरे भी शमिल है, जिसके बाद ही एक शादी सम्पन्न मानी जाती है। क्या आप सोच सकते हैं कि ऐसी भी शादी होती है जिसमे इस तरह की कोई भी गतिविधि नहीं होती है। इस तरह कि शादी को सेल्फरेस्पेक्ट मैरिज कहा जाता है यानिकी आत्मसम्मान विवाह।
तमिलनाडु में मान्यता प्राप्त
आत्मसम्मान विवाह में किसी तरह कि परम्परा का पालन नहीं करना होता है और शादी को सम्पन्न किया जा सकता है। इसके बाद इसे पंजीकृत करना होता है और आसानी से किसी भी रीति-रिवाज़ को माने बिना शादी पूर्ण हो जाती है। इस तरह की शादी को 1968 में हिंदू विवाह अधिनियम 1995 (संशोधित) को विधानसभा में पारित किया गया और धारा 7ए जोड़ने के बाद इस तरह की शादी वैध मानी जाने लगी। इस तरह के विवाह तमिलनाडु में मान्य है और कई लोग वहां आत्मसम्मान विवाह कर चुके हैं।
किस तरह शुरू हुए आत्मसम्मान विवाह
पेरियार ई.वी. रामास्वामी ने 1925 में आत्मसम्मान आन्दोलन चलाया था, इस आन्दोलन के पीछे उनका मकसद था कि निम्न जाति के लोगों को भी समाज में सम्मान मिल सकें और जात पात के भेदभाव को खत्म किया जा सके। पेरियार ई.वी. रामास्वामी एक समाज सुधारक होने के साथ साथ नेता भी थे जिन्होंने आत्मसम्मान आन्दोलन किया जिसके आत्मसम्मान विवाह की शुरुआत हुई और सबसे पहला आत्मसम्मान विवाह 1928 में हुआ।
आत्मसम्मान विवाह में दहेज जैसी प्रथा भी शामिल नहीं है और नहीं इस तरह कि शादी में अधिक खर्च आता है इसीलिए दक्षिण भारत में कई लोगों ने इस तरह की शादी की है और अपनी शादी का पंजीकरण भी किया है।
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